१५३ - १५४] सुधाकर-चन्द्रिका। ३२३ 11
जो द्रव्य से रूस गये हैं, अर्थात् द्रव्य से मन को हटाये हुए हैं, (क्योंकि) द्रव्य के समेटने से, अर्थात् द्रव्य को एकहाँ करने से, बहुत ऐसे (देखे गये हैं जो, कि ) मूस गये, अर्थात् लुट गये सब (कोई ) चौर-समुद्र को लाँघ (और) दधि समुद्र में आये। (लोग विश्राम क्यों नहीं लेते हैं । लगातार क्यों चले जाते हैं। इस पर कवि कहता है, कि) जो स्नेह के बौरहे हैं, अर्थात् प्रेम-रस के नशे से जो पागल हो गये हैं; तिन्हें न धूप न छाया, वा तिन मनुष्यों को न धूप न छाया कुछ भी नहीं समझ पडतो, अर्थात् उन्हें दुःख और सुख दोनों का ज्ञान नहीं रहता, प्रेम-रस के नशे में मत्त रहते हैं; जिस पर प्रेम है, उसी के मिलने का दिन रात ध्यान लगा रहता है ॥ १५३॥ चउपाई। दधि समुदर देखत तस डहा। पेम क लुबुध दगध इमि सहा ॥ पेम जो डाढा धनि वह जौज। दधि जमाइ मँथि काढइ घौज ॥ दधि एक बूंद जाम सब खोरू। काँजो बूंद बिनासइ नौरू साँस डौढ मन-मँथनी गाढी। हिअइ चोट बिनु फूट न साढौ ॥ जेहि जिउ पेम चंदन तेहि आगी। पेम बिहून फिरइ डरि भागी । पेम क आगि जरइ जउ कोई। ता कर दुख न अँबिरथा होई ॥ जो जानइ सत आपुहि जारा। निसत हिअइ सत करइ न पारा॥ दोहा। दधि समुंद पुनि पार भे पेमहि कहाँ सँभार। भावइ पानी सिर परइ भावइ परहिँ अंगार ॥ १५४ ॥ समुदर = समुद्र। तम = तथा = तैसा। डहा = दहा = डहद, वा दहद (दहति) का भृत-काल में एक-वचन । पेम = प्रेम । लुबुध = लुब्ध = लोभौ । दगध = दग्ध = दाह । इमि = दम् = दूस। सहा = महद् (सहते) का भूत-काल में एक-वचन । डाढा = डाहा = डाहद (दाहयति) का भूत-काल में एक-वचन । धनि = धन्य । जोऊ = जीव ।