१६.] सुधाकर-चन्द्रिका। ३४२ चौं टी = चाटी। टूटि = त्रुटित्वा = टूट कर । मरि = मृत्वा = सर कर = सरक कर । माटी = मट्टी = मृत् = स्मृत्तिका । खाहिँ = खादू (खादति) का बहु-वचन । झोला = झाला = वेग = श्राघात । पात = पत्र । बर = वट वृक्ष । डोला = दोला = दूधर उधर डोलना। परहि= पर (पतति) का बहु-वचन । भवर = भ्रमर = भौं र = आवर्त्त । बाँहा = बाहु । अगुमन = आगमन = आगे = सब से पहले । खेवा = खेव्य खेवने के योग्य = जहाज । खेवक = खेवने-वाला = ले चलने-वाला = मलाह = केवट। सुत्रा-शुक= सुग्गा । परेवा = पर्णवान् = पतत्री = पक्षी ॥ सबेरई = सुबेला-हो = सबेरे-हो। आवा = आवद् (आयाति) का भूत-काल में एक-वचन । पछ-राति पश्चाद्रात्रि = पर-रात्रि = आधौ-रात के बाद । हुत = था, वा, थी। साजु = साज सज्जः = तयारी उतरा उतरदू (उत्तरति) का भूत-काल में एक-वचन । भाँति = भनौ, विघ्नों को = प्रकार ॥ कोई जहाज (ऐसे वेग से चलते हैं ) जैसे पवन उडते हैं। (जहाज का सर्वत्र अध्याहार करना चाहिए)। कोई चमक कर बिजुली से भी बढ कर जाते हैं । कोई ऐमा दौडते हैं जैसे अच्छा घोडा दौडे। कोई (को ऐसौ मन्द दशा है) जैसे गरियार बैल, अर्थात् चलाने से भी नहीं चलते हैं । कोई ( (समुद्र के अनुकूल लहर से ऐसा ) हलका (हो कर विना इधर उधर हिले वेग से चलता है) जानों रथ हाँकी जा रही है। कोई (प्रतिकूल लहर से ऐसा) भारी ( हो गये हैं और मन्द मन्द चलते हैं जाना ) बोझे से थक गये हैं ॥ कोई (ऐसा धीरे धीरे रेंगते हैं) जानौँ चौटौ (चल रही) हैं। कोई (समुद्र-तरङ्ग के आघात से) टूट कर, (और) मर कर वा सरक कर मट्टी हो जाते हैं, अर्थात् मट्टी में मिल जाते हैं | कोई वायु के धक्के खाते हैं । कोई (मन्द मन्द वायु के धक्के से एक हौ स्थान में ) बर के पत्ते के ऐसा डोला, अर्थात् डग मग, करते हैं ॥ कोई जल के भवर में पड़ते हैं। कोई (भवर में ) फिरते रहते हैं ( परन्तु सामर्थ्य के बाहर होने से) कोई बाँह नहीं देता है, अर्थात् किसी को सामर्थ्य नहीं कि उन्हें उस भवर से निकाले ॥ (ऐसौ भयकर विकराल दशा में) राजा का जहाज सब से भागे हुआ, (और उस जहाज के ) खेवक के आगे (हौरा-मणि ) शुक पचौ हुआ है ॥ (ऐसे भयानक समुद्र में राजा के सत्य और दान-पुण्य के प्रभाव से लोग डूबे नहौँ'; जीते जागते ) कोई (उस पार राजा से ) सवेरे-हौ दिन को मिले, कोई
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