१६८] सुधाकर-चन्द्रिका। ३७२ यण सिर = शिर । नावा = नाव (नमयति) का भूत-काल में एक-वचन । नावत = नावते = झुकाते। मौस = शौर्ष = शिर। देव = देवता = महादेव। पहँ = पार्श्व = निकट । श्रावा = श्रावदू (श्रायाति) का पुंलिङ्ग में भूत-काल का एक-वचन । नारायन = नारा- नारायणाय । देवा = देव = हे देव । वा, देवा= देवाय = महादेवाय महादेव के लिये। जोग = योग = योग-क्रिया। सकउँ= सकद (शक्कोति) का उत्तम-पुरुष में एक-वचन । सेवा = टहल = खिदमत । तुई = त्वम् = तुम। दयाल = दयालु = दया के घर । उपराही = उपरि हि = ऊपर । गुन = गुण । जीभ = जिहा। रस-बाता-रम- वार्ता = रस को बात। निरगुन = निर्गुणा = गुण-रहित । दाता = देने-वाले । पुरवहु = पुरवद् (पूरयति) का लोट् लकार में मध्यम-पुरुष का बहु-वचन । दरस = दर्शन । श्रामा = पास = श्राशा। हउँ= अहम् = मैं । मारग = मार्ग । जोत्र = जोत्र (जोहद - जुहोति) का उत्तम-पुरुष में एक-वचन । हरि = हर प्रत्येक। साँमा = माँस श्वास ॥ बिधि = विधि = विधान = प्रकार । बिनय = विनय = प्रार्थना == स्तुति । जानउँ: जानद् (जानाति) का उत्तम-पुरुष में एक-वचन । असतुति = स्तुति। करु = करडू ( करोति) का लोट में मध्यम-पुरुष का एक-वचन । सु-दिसिटि = सु-दृष्टि = सुन्दर दृष्टि। किरिपा = कृपा महर्बानी। हौंछा = हि-दूच्छा = निश्चय से मनोरथ । पूजदू- पूजे ( पूर्यते) = पूजद का विध्यर्थ में प्रथम-पुरुष का एक-वचन ॥ राजा ने विरह से बौरहा (और) विरक्त (वियोगी) हो, तौम सहस्र योगियों को मङ्ग में चेला बनाये [पहले कह आये हैं, कि सोरह सहस्र राज-कुमार योगी हुए, ( १ ३ ६ वाँ दोहा देखो) और यहाँ तीस हजार कहते हैं। दूस विरोध को मिटाने के लिये सोरह हजार राज-कुमार और चौदह हजार इतर माधारण लोगों की संख्या लेनी चाहिए इसी लिये १३ ६ ३ दोहे में 'राइ रंक सब भए बिओगी । मोरह सहम कुअर भए जोगी ॥' इस में माधारण लोगों के ग्रहणार्थ रादू, रंक का उपादान है ] ॥ पद्मावती दर्शन की आशा से, मण्डप के चारो ओर (श्रा कर) दण्डवत् किया ॥ (मण्डप के) पूर्व-दार हो कर शिर को झुकाया, और शिर को झुकाते हो, अर्थात् शिर को झुकाये-हौ महादेव (देव) के पास आया ॥ (श्रा कर बाहर से कहने लगा, कि) देवाय नारायणाय नमो नमः, अर्थात् नारायण-स्वरूप देव के लिये मेरी वार वार नमस्कार (योगी लोग सब देवताओं को नारायण-रूप समझ, आज तक 'नारायणाय नमो नमः' ऐमा ही प्रणाम करते हैं)। मेरे में क्या योग है ? मैं क्या (श्राप को) ?
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