सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:पदुमावति.djvu/४८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३७८ पदुमावति । १८ । वियोग-खंड | [११ अथ पदुमावति- बिग-खंड ॥१८॥ चउपाई। पदुमावति तेहि जोग सँजोगा। परौ पेम बस गहे बिनोगा ॥ नौंद न परइ रइनि जो आवा। सेज केवाँछ जानु कोउ लावा ॥ डहइ चाँद अउ चंदन चौरू। दगध करइ तन बिरह गंभौरू ॥ कलप-समान रइनि तेहि बाढौ। तिल तिल जो जुग जुग पर-गाढौ ॥ गहे बौन मकु रइनि बिहाई। ससि-बाहन तब रहइ ओनाई ॥ पुनि धनि सिंघ उरेहइ लागइ। अइसौ बिथा रइनि सब जागइ ॥ कहाँ हो भवर कवल-रस लेवा। आइ परहु होइ घिरिनि परेवा ॥ दोहा। सो धनि बिरह पतंग भइ कंत न आउ भिरिग होइ जरा चहइ तेहि दौप। को चंदन तन लोप ॥ १७१ ॥ 1 जोग = योग। संजोग = संयोग। पेम = प्रेम। बम = वश । गहे = ग्रहण किया पकड लिया (ग्टह उपादाने )। बिश्रोग = वियोग = जुदाई । नौंद = निद्रा। परदू = पतति । रनि = रजनौरात्रि। सेज 1 = शय्या । कवाँछ = कपि-कच्छु = केवाँच लता-फल, जिस के क्रू जाने से देह में खजुली पैदा हो जाती है। जानु = जाने वा यथा। एक