8-4) सुधाकर-चन्द्रिका। । - जाता है। जैसे वर्षा ऋतु में दौंवक को । लोवा = लोमडौ । उंदुर = मूसा । चाँटी = चौंटौ। राकस = राक्षस । परेत = प्रेत। भोकम = बुभुक्षु = भुक्वड । दएता = दैत्य । उपराजि = उत्पन्न कर ॥ अगर, कस्तुरी, और खम को किया। भीमसेनी और चौनी कपूर को किया । नाग (मर्प) को किया जिम के मुख में विष बसता है। मन्त्र को किया जो उसे हुये विष को हर लेता है ॥ अमृत को किया जिस को पान कर (प्राणै) जीता है। विष को किया, जो तिस को खाता है वह मृत्यु को प्राप्त होता है। यहाँ “ मौं चु" के स्थान में मरदू" यह पाठ होने से सुन्दर अर्थ लग जाता है। जो तिस को खाता है वह मर जाता है ॥ ऊख को किया जिस में मौठा रस भरा रहता है। कडुई बेलि को किया जो कि बहुत फरती है ॥ मधु को किया जिम को ले कर मकवी (छत्ते को ) लगाती है। भ्रमर, पक्षी, और पाँखौ को किया ॥ लोमडौ, मूमा, और चौंटी को किया । बहुत ऐमा किया जो मट्टी को खन कर रहते हैं ॥ राक्षस, भूत और प्रेत को किया। भुकवड, देवता, और दैत्य को किया ॥ तरह तरह उत्पन्न कर अठारह हजार को किया। (हमारे यहाँ चौरामौ लाख योनि है परन्तु ग्रन्थ-कार ने अठार-हौ हजार लिखा है। *मुसल्मानौ मत में अठार-हौ हज़ार योनि हैं ) ॥ सब तरह को साजना (तयारी) साज कर (बना कर ) सब को भोजन दिया । अर्थात् जिस को जैसा चाहिए वैसी सब सामग्री समेत भोजन को दिया ॥ ४ ॥ चउपाई। धनपति उहइ जेहि क संसारू। सबहि देइ निति घट न भंडारू ॥ जावत जगत हसति अउ चाँटा । सब कह भुगुति राति दिन बाँटा ॥ ता करि दिसिटि सबहि उपराहौँ। मितर सतरु कोइ बिसरइ नाही पंखौ पतंग न बिसरइ कोई। परगट गुपुत जहाँ लगि होई ॥ भोग-भुगुति बहु भाँति उपाई। सबहि खिावइ बापु न खाई ॥ ता कर इहइ जो खाना पिअना। सब कहँ देइ भुगुति अउ जिना ॥ सबहि आस ता करि हर साँसा। ओहि न काहु कइ अास निरासा ॥
- मुसल्मानों के एक मौलूद में लिखा है कि “हिशद हजार चालम” अर्थात् पठारह हजार योनि हैं। बहुत
से लोग कहते हैं कि यहाँ अठारह हजार से अनन्त समझना चाहिए।