पृष्ठ:पदुमावति.djvu/६८

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२० पदुमावति । १ । असतुति-खड । [१४-१५ का भार पृथ्वी नहौं सहती है ॥ (जिस समय) घोडे से भरौ सेना जग को पूरा कर अर्थात् पृथ्वौ भर में फैल कर चलती है, (उस समय) पर्वत टूट कर धूर हो कर उडने लगते हैं ॥ धूर रात्रि हो कर सूर्य को ग्रास लेती है, अर्थात् छिपा लेती है, मनुष्य और पक्षौ (रात समझ कर ) फिर कर (लौट कर) बसेरा लेने लगते हैं ॥ भूमि उड कर अन्तरिक्ष को चली गई, मृत्तिका ने धरती के खण्ड खण्ड ( प्रत्येक विभाग) को, (विधि को ) सृष्टि (मात्र ) को और ब्रह्माण्ड को मर्दन कर डाला, अर्थात् सर्वत्र धूर व्याप्त हो गई, धूर छोड और कुछ नहीं दिखाई देता है ॥ अाकाश घूमने लगता है, इन्द्र (देवताओं का राजा) डर कर काँपने लगता है, वासुकि जा कर पाताल को चाँपता है ॥ मेरु (देवताओं का पर्वत) नौचे धंस जाता है, समुद्र सूख जाते हैं वन-विभाग टूट कर, अर्थात् छिन्न भिन्न हो कर, मट्टी में मिल जाते हैं ॥ आगे के (घोडों को) किसी किसी को पानी और घास बाँटा गया, (परन्तु) पिछले में किसी (घोडौँ) को काँदो तक न अँटा, अर्थात् न पूरा पडा ॥ जो गढ कभी भी नहीं झुके थे, वह सब जब पृथ्वी का पति जग का बहादुर शेर शाह चढाई करता है (उस समय सेना के ) चलते-हौ चूर हो जाते हैं, अर्थात् ऐसा गुरु (भारी) राजा है, कि उस के भार को कोई नहीं संभार सकता ॥१४॥ = चउपाई। अदल कहउँ पुहुमौ जस होई। चाँटहि चलत न दुखवइ कोई ॥ नउसेरवाँ जो आदिल कहा। साहि अदल सरि सोउ न अहा ॥ अदल कौन्ह उम्मर कइ नाई। भइ श्राहा सगरौ दुनिआई ॥ परी नाँथ कोइ छुअइ न पारा। मारग मानुस सोन उछारा॥ गोरु सिंघ रेंगहि प्रक बाटा। दून-उ पानि पिअहिँ एक घाटा ॥ नौर खौर छानइ दरबारा। दूध पानि सब करइ निरारा॥ धरम निभाउ चलइ सत-भाखा। दूबर बरौ एक सम राखा ॥ दोहा। पुहुमौ सबइ असौसई जोरि जोरि कइ हाथ । गाँग जउन जल जब लगि तब लगि अमर सो माथ ॥ १५ ॥