पृष्ठ:पदुमावति.djvu/६९४

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५७६ पदुमावति । २५ । सूरी-खंड । [२६६ 1 अवधि , मार:- = जीउ = जीव । मरद पर = मरने पर। बसा बसद् (वसति) = बसता है। सूरी= शूली। देखि = दृष्ट्वा = देख कर। सो = सो = वह । कस = कथम् । हँसा = हंसे हसेत् । श्राजु = अद्य = आज। नेह स्नेह । सउँ=से। हो = भवति होता है। निबेरा = निवृत्ति । पुडमि = पृथ्वी = भूमि । तजि = त्यत्वा = तज कर= छोड कर । गगन = श्राकाश । बसेरा वास । कया-पिंजर काय-पिञ्जर = शरीर-पिंजडा। बंध बन्धन । टूटा = टूट-टूटद् = त्रुश्यति = टूटता है। परान-परेवा = प्राण-पारावत = प्राण-पक्षौ । छूटा = छूटद् = छूट (छोटति) = कूटता है। निरारा निरालय = अलग । पेम =प्रेम। सँग = सङ्ग = साथ । चला = चल = चल (चलति) चलता है। पिधारा प्यारा प्रिय ॥ सौमा = हद्द । सरि = सरित् = नदी। पूजौ = पूजद (पूर्यते) का भूत- काल, प्रथम-पुरुष, स्त्री लिङ्ग, एक-वचन । कद् = कृत्वा = कर के । चलउँ = चलामि = चलता है। मुख = मुंह । रात लाल। बेगि = वेग = शौघ्र । होहु = भवथ = हो। मोहि= मोहि = मुझे। मारयथ मारिए। चाक-चालयथ = चलाते हो । बात = वार्ता (राजा रत्न-सेन ने कहा कि ) अब हमारी जाति क्या पूछते हो, हम योगी और तपखौ भिखारी हैं। हे राजा, योगी को कौन जात (जिसे ) मारने से न क्रोध और गाली से न लज्जा। भिखारी, जिन्हों ने लाज खो दिया है, निर्लज्ज होते हैं, उन्ह के खोज में कोई मत पडो। जिस का जीव मरने पर बस गया वह शूलो देख कर क्यों न हँसे । आज स्नेह से निबटेरा (निवृत्ति) होता है, आज भूमि छोड कर आकाश में वास होता श्राज शरीर-पिँजडे का बन्धन टूटता है (इस लिये ) श्राज प्राण-पक्षी छूटता है। आज स्नेह से अलग होना होता है, भाज प्यारा (प्राण ) प्रेम के साथ चलता है ॥ आज (प्रेम-अवधि-रूप नदी भर गई (दस लिये अपना) मुंह लाल कर चलता हूँ, अर्थात् प्रेम-नदी-धारा में पड कर मुंह नहीं मोडा उस के भर जाने से मरता हूँ। लोग यह तो कहेंगे कि जिस राह में रत्न-सेन पडा उम में प्राण तक दे दिया पर मुंह नहीं मोडा। दूस लिये मैं अपना मुँह लाल कर के चलता हूँ। जौं मुँह मोडता तो अवश्य काला मुँह कर के जाता। (रत्न-सेन कहता है कि) बेगि होड अर्थात् जल्दी करो, (अभी) मुझे मारो ; क्यों बहुत बात चलाते हो ॥ - ..