पृष्ठ:परमार्थ-सोपान.pdf/२०५

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Pada 17] Pilgrimage. १४७ | (१७) अनुवाद. हे दीनानाथ, तुम पलक उघाड़ो । मैं नज़र लेकर आपके सामने कब से खड़ी हूँ । जो साधु थे, वे दुश्मन होकर पीछे पड़े हैं । मैं सब को कड़ी लग रही हूँ । दिन में चैन नहीं, रात में नींद नहीं । खड़ी खड़ी सूख रही हूँ। कहिए! मीरा में कौन सा बोझ है ? सौ पर एक घड़ी का बोझ ही क्या ? गुरु रैदास मुझे पूरे मिले, मानो मेरा सिर कमल से शोभित हो गया । जब सद्गुरु ने आकर संकेत दिया, तब ज्योति में ज्योति मिल गई ।