परिषद् की वैठक खुले रूप से होती थी। बीच मे परिपद् बैठती थी, उसके चारो ओर कबीले के वाकी सदस्य बैठते थे और उन्हें बहस मे भाग लेने और अपनी राय देने का हक होता था। फैमला परिषद् करती थी। प्राम तौर पर बैठक के समय मौजूद हर आदमी को परिपद् के सामने अपनी बात कहने का अधिकार होता था। यहां तक कि स्त्रियां भी किसी को अपना प्रवक्ता बनाकर उसके जरिये अपनी बात परिषद् के सामने रख सकती थी। इरोक्या लोगों मे परिपद् को अपना अतिम फैमला एकमत से करना पड़ता था। जर्मन लोगों के बहुत-से मार्क-समुदायो के फैसले भी इसी प्रकार होते थे। दूसरे कबीलों के साथ सम्बन्ध रखने की जिम्मेदारी कवायली परिपद् की ही होती थी। वह दूसरे कबीलों के दूतों का स्वागत करती थी और उनके पास अपने दूत भेजती थी। वह युद्ध की घोषणा करती थी और शांति-संधि करती थी। युद्ध छिड जाने पर आम तौर पर वे ही लोग लड़ने के लिये भेजे जाते थे जो स्वेच्छा से इसके लिये तैयार होते थे। सिद्धान्ततः तो एक कबीले का उन तमाम कबीलो से युद्ध का सम्बन्ध होता था जिनसे उमकी बाकायदा शांति-संधि नही हो गयी हो। ऐसे शत्रुप्रो के खिलाफ प्राय: कुछ विशिष्ट योद्धा सैनिक अभियान संगठित करते थे। वे यद्ध-नृत्य करते थे ; जो कोई भी नृत्य में शामिल हो जाता था, उसके बारे में समझा जाता था कि उसने अभियान में भाग लेने के अपने निश्चय की घोषणा कर दी है। तब तुरन्त एक दस्ता तैयार करके रवाना कर दिया जाता था। कबायली इलाक़े पर कोई हमला होता था तो उस वक्त भी इसी प्रकार मुख्यतः स्वयंसेवक उसकी रक्षा करते थे। ऐसे दस्तों के रवाना होने और लौटने के समय सार्वजनिक उत्सव किया जाता था। ऐसे अभियानों के लिये कवायली परिपद् से इजाजत लेना जरूरी नहीं होता था। न कोई इजाजत लेता था, न परिषद् इजाजत देती थी। ये हूबहू जर्मन खिदमतगार सैनिकों के उन निजी युद्ध-अभियानों के समान होते थे जिनका दैसिटस ने वर्णन किया है । 83 अन्तर केवल यह था कि जर्मनों में खिदमतगार सैनिको की जमात कुछ अधिक स्थायी रूप धारण कर चुकी थी; वह शान्ति-काल में संगठित उस केन्द्र-बिन्दु का काम करती यो जिसके चारो पोर युद्ध काल में और बहुत-मै स्वयंसेवक पाकर संगठिन हो जाते थे। इन फौजी दस्तो में लोगों की संख्या कभी बहुत ज्यादा नहीं होती थी। इंडियनों के अत्यंत महत्त्वपूर्ण अभियानो में भी, उनमें भी। ११७
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