- रुपया प्रदा नही होता था, या यदि कर्ज के बदले मे कोई वस्तु गिरथी नहीं रखी गयी थी, तो कर्जदार को महाजन का रुपया अदा करने के लिये अपने बच्चों को विदेश में गुलामों की तरह बेचना पड़ता था। पिता अपने हाथो अपनी सन्तान को बेच डालता था-पितृ-सता और एकनिष्ठ विवाह वा पहला नतीजा यही निकला था! यदि रक्त शोपकः इसके बाद भी सतुष्ट नहीं होता था तो वह युद कर्जदार को गुलाम की तरह बेच सकता था। एथेंसवासियो मे सभ्यता के युग का अरुणोदय इसी प्रकार हुआ था। पहले , जव लोगो के जीवन की परिस्थितियां गोत्र-व्यवस्था के अनुरूप थी, तब इस तरह की क्रान्ति का होना असम्भव था, परन्तु अब यह क्रान्ति हो गयी थी और किसी को पता तक न चला कि वह हुई कैसे । प्राइये , कुछ क्षणो के लिये फिर इरोक्वा लोगों के बीच लौट चलें। जैसी स्थिति एथेंसवासियो के बीच अपने आप और मानो, बिना उनके कुछ किये ही और निश्चय ही उनकी इच्छा के विरद्ध , पैदा हो गयी, वैसी स्थिति इरोक्वा लोगो में अकल्पनीय होती। वहा जीवन-निर्वाह के साधनो के उत्पादन का ढंग , जो वर्ष-प्रति-वर्ष एक सा ही रहता था और जिसमे कभी कोई परिवर्तन नहीं होता था, ऐसा था कि उममे बाहरी कारको से आरोपित विरोध कभी पैदा ही नहीं हो सकते थे। उत्पादन के उस ढग मे धनी और गरीव का विरोध, शोपको और शोपितो का विरोध उत्पन्न नहीं हो सकता था। इरोक्वा लोगो के लिये प्रकृति को वशीभूत करना अभी दूर की वात थी, परन्तु प्रकृति ने उनके लिये जो सीमायें निश्चित कर दी थी, उनके भीतर वे अपने उत्पादन के स्वामी थे। कभी-कभी उनके छोटे-छोटे बगीचो में फ़सल मारी जा सकती थी, कभी-कभार उनकी झीलो और नदियो मे मछलियो या जंगलों में शिकार के पशु-पक्षियों की कमी पड सकती थी, पर इन बातो के अलावा वे निश्चित रूप से जानते थे कि उनकी जीविकोपार्जन प्रणाली का क्या परिणाम होगा। उसका परिणाम यही हो मकता था कि जीवन-निर्वाह के साधन प्राप्त हो, कभी प्रचुर तो कभी न्यून; परन्तु उमका परिणाम यह नहीं हो सकता था कि समाज में अप्रत्याशित उथल- पुथल मच जाये , गोत्र-व्यवस्था के बंधन छिन्न-भिन्न हो जायें, गोत्रों और कबीलों के मदस्यो में फूट पड़ जाये और वे परस्पर-विरोधी वर्गों मे बंटकर प्रापम में लड़ने लगे। उत्पादन बहुत सीमित दायरे में होता था, परन्तु उत्पादन करनेवालो का अपनी पैदावार पर पूरा नियंत्रण रहता था। बर्बर १४३