सभी मामलों में बहुत मूल्य होता है। अन्यथा हो भी नहीं सकता। क्योंकि नाइट अथवा सामन्त के लिये, और खुद राजा या राजकुमार के लिये, विवाह एक राजनीतिक मामला होता है। उनके लिये विवाह नये गठबंधन करके अपनी शक्ति बढाने का एक अवसर होता है। इसलिए विवाह में राजकुल अथवा सामन्तकुल के हित निर्णायक होते है, न कि व्यक्तिगत इच्छा या प्रवृत्ति । भला ऐसी परिस्थिति में, विवाह का निर्णय प्रेम पर निर्भर होने की आशा कैसे की जा सकती थी ? मध्य युग के नागरिकों के लिये भी यही बात सत्य थी। उसे ऐसे विशेषाधिकार प्राप्त थे जो उसकी रक्षा करते थे-जैसे कि शिल्प- संघो के अधिकारपत्र और उनकी विशेष शर्ते, दूसरे शिल्प-संघो से और स्वयं अपने संघ के दूसरे सदस्यो से, तथा अपने मजदूर कारीगरो और शागिर्दो से , उसे कानूनी तौर पर अलग रखने के लिये बनायी गयी बनावटी सीमाएं। पर ये ही विशेषाधिकार उस दायरे को बहुत छोटा कर देते थे जिसमे वह अपने लिये पली तलाश करने की उम्मीद कर सकता था। और यह प्रश्न कि कौनसी लड़की उसके लिये सबसे उपयुक्त है, इस पेचीदा प्रणाली में निश्चय ही व्यक्तिगत इच्छा से नहीं, बल्कि परिवार के हित से तय होता था। अतएव मध्य काल के अन्त तक, विवाह का अधिकाशतः वही रूप रहा जो शुरू से चला आया था-यानी वह एक ऐसा मामला बना रहा जिसका फ़ैसला दोनों प्रमुख पक्ष - वर और वधू - नहीं करते थे। शुरू में व्यक्ति जन्म से विवाहित होता था-पुरुष स्त्रियो के एक पूरे समूह के साथ, और स्त्री पुरुषो के। यूथ-विवाह के बाद के रूपो में भी शायद इसी तरह की हालत चलती रही, बस केवल यूथ अधिकाधिक छोटा होता गया। युग्म-परिवार में सामान्यतः माताएं अपनी सन्तान का विवाह तय करती हैं ; और यहां भी निर्णायक महत्त्व इसी बात का होता है कि नये संबंध से गोन मे और कबीले के अन्दर विवाहित जोड़े की स्थिति कितनी मजबूत होती है। और जब सामाजिक सम्पत्ति के ऊपर निजी सम्पत्ति को प्रधानता कायम होने और सम्पत्ति को अपनी सन्तान के लिये छोड़ने का सवाल पैदा होने पर, पितृ-सत्ता और एकनिष्ट विवाह की प्रधानता कायम हो जाती है, तव विवाह पहले से भी कही ज्यादा आर्थिक कारणों से निश्चित होने लगता है। क्रय-विवाह का रूप तो गायव हो जाता है, पर लि. 7
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