करते थे. नौकरों के विषय में उनका बरताव बड़ा विलक्षण था, जो मनुष्य एक बार नौकर हो गया वह हो गया, फिर उसे कुछ काम लिया जाये या न लिया जाये. उसके लायक कोई काम हो या न हो. वह अपना काम अच्छी तरह करे या बुरी तरह करे, उसके प्रतिपालन करने का कोई हक अपने ऊपर हो या न हो. वह अलग नहीं हो सकता और उसपर क्या है? कोई खर्च एक बार मुकर्रर हुए पीछे कम नहीं हो सकता, संसार के अपयश का ऐसा भय समा रहा है कि अपनी अवस्था के अनुसार उचित प्रबंध सर्वथा नहीं हो पाता. सब नौकर सब कामों में दखल देते हैं परंतु कोई किसी काम का जिम्मेवार नहीं है, और न कोई सम्भाल रखता, मामूली तनख्वाह तो उन लोगों ने बादशाही पेन्शन समझ रखी है. दस-पंद्रह रुपये महीने की तनख्वाह हजार पांच सौ रुपये पेशगी ले रखना, दो-चार हज़ार पैदा कर
लेना कौन बड़ी बात है? पांच रुपए महीने के नौकर हों या तीन रुपये महीने के नौकर हों, विवाह आदि का खर्च लाला साहब के जिम्में समझते हैं, और क्यों न समझें? लाला साहब की नौकरी करें तब विवाह आदि का ख़र्च लेने कहां जायें? मदद का दारोगा मदद में, चीज़बस्त लानेवाले चीज़बस्त में, दुकान के गुमाश्ते दुकान में, मनमाना काम बना रहे हैं जिसने जिस काम के वास्ते जितना रुपया पहले ले लिया वह उसके बाप दादे का हो चुका, फिर हिसाब कोई नहीं पूछता. घाटे नफ़े और लेन देन की जांच पड़ताल करने के लिये कागज कोई नहीं देखता. हाल में लाला मदनमोहन ने अपने नौकरों के प्रतिपालन के लिये अलीपुर रोड का ठेका ले रखा था जिसमें सरकार से ठेका लिया उससे दूने
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