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हिन्दी से स्वाभाविक प्रेम था। आप जहां कहीं बाहर जाते और वहां कोई हिन्दी का लेखक या रसिक होता तो उससे अवश्य ही मिलते । यदि इनके यहां कोई हिन्दी का गुणग्राही जाता तो सब काम छोड़ कर उससे बड़े प्रेम से मिलते और उसका अच्छा सत्कार करते थे।
एक बार आप पंडित प्रतापनारायण मिश्र के यहां मिलने गए और बड़ी नम्रतापूर्वक इन्होंने उन्हें एक मोहर नज़र करनी चाही। इस पर पंडित प्रतापनारायण बेतरह बिगड़े और बोले-आप हमारे पास अपनी धन की गुरूरी बतलाने आए हो। इसके उत्तर में इन्होंने नम्रतापूर्वक हाथ जोड़ कर उत्तर दिया कि नहीं महाराज मैं तो मातृभाषा के मन्दिर पर अक्षत चढ़ाता हूं ।
लाला श्रीनिवासदास को हिन्दी से बड़ा प्रेम था और इसकी सेवा करने का बड़ा उत्साह था परन्तु काम काज की झंझट के कारण इन्हें अवकाश बहुत कम मिलता था। इसलिये इनके लिखे हुए तप्तासंवरण, संयोगितास्वयंवर,रणधीरप्रेममोहिनी और परीक्षागुरु ये ही चार ग्रन्थ हैं, पर फिर भी ये चारों ग्रन्थ एक से एक बढ़ कर हैं। परीक्षाशुरु में इन्होंने जो एक साहूकार के पुत्र के जीवन का दृश्य खींचा है उसे देख कर स्पष्ट प्रगट होता है कि इन्हें सांसारिक व्यवहारों का कैसा अच्छा अनुभव था।
खेद के साथ कहना पड़ता है कि लाला श्र्रीनिवासदास केवल ३६ वर्ष की अवस्था में संवत् १९४४ ( सन् १८८७ ई०) में काल कवलित हुए। यदि ये कुछ दिन और रहते तो हिन्दी भाषा की बहुत कुछ सेवा करते। इनका चरित्र और स्वभाव आदर्श मानने योग्य है।____