मैंने बैठते हुए कहा--जी हाँ, लेकिन सरदार साहब, न जाने क्यों मैं कुछ थोड़ा बुज़दिल हो गया हूँ।
सरदार साहब ने आश्चर्य से कहा--असदखाँ और बुजदिल ! यह दोनों एक जगह होना नामुमकिन है।
मैंने उठते हुए कहा--सरदार साहब, यहाँ तबीयत नहीं लगती, उठकर बाहर बरामदे में बैठिये। न मालूम क्यों मेरा दिल घबराता है।
सरदार साहब उठकर मेरे पास आए और स्नेह से मेरी पीठपर हाथ फेरते हुए कहा--असद, तुम दौड़ते-दौड़ते थक गये हो, और कोई बात नहीं है। अच्छा चलो, बरामदे में बैठें। शाम की ठंडी हवा तुम्हें ताजा कर देगी।
सरदार साहब और मैं, दोनों बरामदे में जाकर कुरसियों पर बैठ गये। शहर के चौमुहाने पर उसी वृद्ध की लाश रक्खी थी, और उसके चारों ओर भीड़ लगी हुई थी। बरामदे में जब मुझे बैठे हुए देखा, तो लोग मेरी ओर इशारा करने लगे। सरदार साहब ने यह दृश्य देखकर कहा--असद खाँ, देखो, लोगों की निगाह में तुम कितने ऊँचे हो। तुम्हारी वीरता को यहाँ का बच्चा-बच्चा सराहता
है। अब भी तुम कहते हो कि मैं बुज़दिल हूँ।
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