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पृष्ठ:पाँच फूल.djvu/१३६

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फ़ातिहा


रहा है। वह दबे पाँव, सतर्क नेत्रों से ताकती हुई धीरे-धीरे मेरी ओर बढ़ रही है। मैं उसे देखकर उठना चाहता हूँ ; लेकिन हाथ-पैर मेरे क़ाबू में नहीं हैं। मानो उनमें जान है ही नहीं। वह स्त्री मेरे पास पहुँच गई। थोड़ी देर तक मेरी ओर देखा, और फिर अपने छुरेवाले हाथ को ऊपर उठाया। मैं चिल्लाने का उपक्रम करने लगा ; लेकिन मेरी घिग्घी बँध गई। शब्द कण्ठ से फूटा ही नहीं। उसने मेरे दोनों हाथों को अपने घुटने के नीचे दबाया और मेरी छाती पर सवार हो गई। मैं छटपटाने लगा और मेरी आँखें खुल गई। सचमुच एक काबुली औरत मेरी छाती पर सवार थी। उसके हाथ में छुरा था और वह छुरा मारना ही चाहती थी।

मैंने कहा--कौन तूरया ?

यह वास्तव में तूरया ही थी। उसने मुझे बलपूर्वक दबाते हुए कहा--हाँ, मैं तूरया ही हूँ। आज तूने मेरे बाप का खून किया है, उसके बदले में तेरी जान जायगी।

यह कहकर उसने अपना छुरा ऊपर उठाया। इस समय मेरे सामने जीवन और मरण का प्रश्न था। जीवन की लालसा ने मुझमें साहस का सञ्चार किया। मैं मरने के लिये तैयार न था, मेरे अरमान और उमंगें अब भी