कोठरी में सिर झुकाये उदास बैठा हुआ है। उसकी कमर झुककर कमान हो गई। देह अस्थिपञ्जर-मात्र रह गई है। ऐसा जान पड़ता है किसी चतुर शिल्पी ने एक अकाल-पीड़ित मनुष्य की मूर्ति बनाकर रख दी है। उसकी मीयाद भी पूरी हो गई है। लेकिन उसके घर से कोई नहीं आया। कौन आवे ? आनेवाला था ही कौन ?
एक बूढ़े ; किन्तु हृष्ट-पुष्ट कैदी ने आकर उसका कन्धा हिलाया और बोला--कहो भगत, कोई घर से आया ?
भक्तसिंह ने कंपित कंठस्वर से कहा--'घर पर है ही कौन ?'
'घर तो चलोगे ही ?'
'मेरे घर कहाँ है ?'
'तो क्या यहीं पड़े रहोगे ?'
'अगर यह लोग निकाल न देंगे, तो यहीं पड़ा रहूँगा !'
आज चार साल के बाद भक्तसिंह को अपने प्रताड़ित, निर्वासित पुत्र की याद आ रही थी। जिसके कारण जीवन का सर्वनाश हो गया, आबरू मिट गई, घर बरबाद हो गया, उसकी स्मृति भी उन्हें असह्य थी ; किन्तु आज नैराश्य और दुःख के अथाह सागर में डूबते हुए उन्होंने उसी तिनके का सहारा लिया। न जाने उस बेचारे की क्या