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पृष्ठ:पाँच फूल.djvu/४७

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स्तीफ़ा

फ़तहचंद--मार तो आया हूँ, लेकिन अब खै़रियत नहीं है। देखो, क्या नतीजा होता है ? नौकरी तो जायगी ही, शायद सज़ा भी काटनी पड़े !

शारदा--सज़ा क्यों काटनी पड़ेगी। क्या कोई इंसाफ़ करनेवाला नहीं है ? उसने क्यों गालियाँ दीं, क्यों छड़ी जमाई ?

फतहचंद--उसके सामने मेरी कौन सुनेगा। अदालत भी उसी की तरफ़ हो जायगी।

शारदा--हो जायगी, हो जाय ; मगर देख लेना अब किसी साहब की यह हिम्मत न होगी कि किसी बाबू को गालियाँ दे बैठे। तुम्हें चाहिए था, कि ज्यों ही उसके मुँह से गालियाँ निकलीं, लपककर एक जूता रसीद करते।

फ़तहचंद तो फिर इस वक्त जिन्दा लौट भी न सकता। ज़रूर मुझे गोली मार देता।

शारदा--देखी जाती।

फ़तहचंद ने मुस्कराकर कहा--फिर तुम लोग कहाँ जाती ?

शारदा--जहाँ ईश्वर की मरज़ी होती। आदमी के लिए सबसे बड़ी चीज़ इज्जत है। इज्ज़त गँवाकर बाल-बच्चों की परवरिश नहीं की जाती। तुम उस शैतान को

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