इन्तज़ार न किया। खानसामा कमरे से बाहर निकला
और वह चिक उठाकर अन्दर गया। कमरा प्रकाश से
जगमगा रहा था। ज़मीन पर ऐसी कालीन बिछी हुई थी,
जैसी फतहचंद की शादी में नहीं बिछी होगी। साहब
बहादुर ने उसकी तरफ क्रोधित दृष्टि से देखकर कहा--तुम
क्यों आया, बाहर जाओ, क्यों अंदर चला आया ?
फ़तहचंद ने खड़े-खड़े डंडा सँभालकर कहा--तुमने मुझसे अभी फ़ाइल माँगा था, वही फाइल लेकर आया हूँ। खाना खा लो, तो दिखाऊँ। तब तक मैं बैठा हूँ। इतमीनान से खाओ, शायद यह तुम्हारा आखिरी खाना होगा। इसी कारण खूब पेट-भर खा लो।
साहब सन्नाटे में आ गये। फ़तहचंद की तरफ़ डर
और क्रोध की दृष्टि से देख कर काँप उठे। फ़तहचंद के
चेहरे पर पक्का इरादा झलक रहा था। साहब समझ गये,
यह मनुष्य इस समय मरने-मारने के लिए तैयार होकर
आया है। ताक़त में फ़तहचंद उनके पासंग भी नहीं था।
लेकिन यह निश्चय था कि वह ईट का जवाब पत्थर से
नहीं, बल्कि लोहे से देने को तैयार है। यदि वह फ़तहचंद
को बुरा-भला कहते हैं, तो क्या आश्चर्य है कि वह डंडा
लेकर पिल पड़े। हाथा-पाई करने में यद्यपि उन्हें जीतने में