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पृष्ठ:पाँच फूल.djvu/६३

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ज़िहाद


हमने तुम्हें रात-भर का वक्त फ़ैसला करने के लिए दिया था। भगर तुम रात ही को हमसे दग़ा करके भाग निकले। इस दग़ा की सज़ा तो यही है कि तुम इसी वक्त जहन्नुम पहुँचा दिये जाओ, लेकिन हम तुम्हें फिर एक मौक़ा देते हैं। वह आख़िरी मौक़ा है। अगर तुमने अब भी इस्लाम न क़बूल किया, तो तुम्हें दिन की रोशनी देखनी नसीब न होगी।

धर्मदास ने हिचकिचाते हुए कहा--जिस बात को अक्ल नहीं मानती, उसे कैसे......

पहले सवार ने आवेश में आकर कहा--मज़हब को अक्ल से कोई वास्ता नहीं।

तीसरा--कुफ़ है ! कुफ़ है !

पहला--उड़ा दो सिर मरदूद का, धुआँ इस पार।

दूसरा--ठहरो-ठहरो, मार डालना मुश्किल नहीं, जिला लेना मुश्किल है। तुम्हारे और साथी कहाँ हैं धर्मदास ?

धर्मदास--सब मेरे साथ ही हैं।

दूसरा--कलामे शरीफ़ की क़सम, अगर तुम सब खुदा और उसके रसूल पर ईमान लाओ, तो कोई तुम्हें तेज़ निगाहों से देख भी न सकेगा।

धर्मदास--आप लोग सोचने के लिए और कुछ मौक़ा न देंगे?

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