पानी लाने भेजा। अगर मालूम होता कि विधि यों धोखा
देगा, तो मैं प्यासों मर जाती ; पर इन्हें न जाने देती। श्यामा
से कुछ दूर खज़ाँचन्द भी खड़ा था। श्यामा ने उसकी ओर
क्षुब्ध नेत्रों से देखकर कहा--अब इनकी जान बचती नहीं
मालूम होती।
खज़ाँचन्द--बन्दूक़ भी हाथ से छूट पड़ी है।
श्यामा--न-जाने क्या बातें हो रही हैं। अरे ग़ज़ब ! दुष्ट ने उनकी ओर बन्दूक तानी है।
खज़ाँ--ज़रा और समीप आ जायँ, तो मैं बन्दूक चलाऊँ। इतनी दूर की मार इसमें नहीं है।
श्यामा--अरे ! देखो वे सब धर्मदास को गले लगा रहे हैं। यह माजरा क्या है ?
खज़ाँ--कुछ समझ में नहीं आता।
श्यामा--कहीं इसने क़लमा तो नहीं पढ़ लिया ?
खज़ाँ--नहीं, ऐसा क्या होगा। धर्मदास से मुझे ऐसी आशा नहीं है।
श्यामा--मैं समझ गई। ठीक यही बात है। बन्दूक चलाओ।
खज़ाँ०--धर्मदास बीच में हैं। कहीं उन्हें न लग जाय।
श्यामा--कोई हर्ज़ नहीं। मैं चाहती हूँ, पहला निशाना