'नींद काहे को आयेगी ? मन तो चड्ढा के घर पर लगा हुआ है।'
'चड्ढा ने मेरे साथ कौन-सी नेकी कर दी है जो वहाँ जाऊँ। वह आकर पैरों पड़े, तो भी न जाऊँ।'
'उठे तो तुम इसी इरादे से हो।'
'नहीं री, ऐसा पागल नहीं हूँ कि जो मुझे काँटे बोवे, उसके लिये फूल बोता फिरूँ।'
बुढ़िया फिर सो गई। भगत ने किवाड़ लगा दिए और फिर आकर बैठा ; पर उसके मन की कुछ वही दशा थी जो बाजे की आवाज कान में पड़ते ही, उपदेश सुननेवालों की होती है। आँख चाहे उपदेशक की ओर हों ; पर कान बाजे ही की ओर होते हैं। दिल में भी बाजे की ध्वनि गूँजती रहती है। शर्म के मारे जगह से नहीं उठता। निर्दयी प्रतिघात का भाव भगत के लिये उपदेशक था ; पर हृदय उस अभागे युवक की ओर था जो इस समय मर रहा था, जिसके लिये एक-एक पल का विलम्ब घातक था।
उसने फिर किवाड़ खोले, इतने धीरे से कि बुढ़िया को भी खबर न हुई। बाहर निकल आया। उसी वक्त गाँव का चौकीदार गश्त लगा रहा था। बोला--कैसे उठे भगत, आज तो बड़ी सरदी है ! कहीं जा रहे हो क्या ?