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पृष्ठ:पाँच फूल.djvu/९८

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मन्त्र


चेतना रोकती थी, उपचेतना ठेलती थी। सेवक स्वामी पर हावी था।

आधी रात निकल जाने के बाद सहसा भगत रुक गया। हिंसा ने क्रिया पर विजय पाई--मैं यों ही इतनी दूर चला आया। इस जाड़े पाले में मरने की मुझे क्या पड़ी थी ? आराम से सोया क्यों नहीं ? नींद न आती न सही, दो-चार भजन ही गाता। व्यर्थ इतनी दूर दौड़ा आया। चड्ढा का लड़का रहे, या मरे, मेरी बला से, मेरे साथ उन्होंने ऐसा कौन-सा सलूक किया था कि मैं उनके लिये मरूँ। दुनिया में हजारों मरते हैं, हजारों जीते हैं। मुझे किसी के मरने-जीने से मतलब !

मगर उपचेतना ने अब एक दूसरा रूप धारण किया, जो हिंसा से बहुत-कुछ मिलता-जुलता था--वह झाड़-फूँक करने नहीं जा रहा है, वह देखेगा कि लोग क्या कर रहे हैं, ज़रा डाक्टर साहब का रोना-पीटना देखेगा, किस तरह सिर पीटते हैं, किस तरह पछाड़ें खाते हैं। वह देखेगा कि बड़े लोग भी छोटों की भाँति रोते हैं या सबर कर जाते हैं। वह लोग तो विद्वान होते हैं, सबर कर जाते होंगे। हिंसा भाव को यों धीरज देता हुआ वह फिर आगे बढ़ा।

इतने में दो आदमी आते दिखाई दिये। दोनों बातें करते

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