पृष्ठ:पीर नाबालिग़.djvu/८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पीर नाबालिग [हमारे दिलफेंक फकड़ तवेयन के पर नाबालिग जैसे आदमियों को तो आपने भी देखा होगा। वे अपने छोटे से कलेजे में बड़ा सा हौसला रखते हैं। उनमें न विचार सामर्थ्य होतो है. न मर्यादा की वाधा । मौज पाई और करनी न करनी सब क गुजरे। इसमे देह नहीं कि ऐसे लाखों तरुण देश में होंगे, जिन्होने जान पर खेलकर ऐसे साहसिक कार्य किए-जिनका समूचा ही श्रेय लीडर लोग हड़प ले गए । आज वे स्वाधीन भारत के चौराहों पर श्राबाग गर्द बने फिर रहे हैं, उनमें स्वयं अपना मूल्य वसूल करने की सामर्थ्य नहीं, और दूसरा कोई क्यों अब उनकी तरफ देखेगा ? विद्वान् कलाकार ने इस कहानी में ऐसे एक तरुण का ऐसा सही चित्र अंकित किया है कि उसे श्रासानी से भुलाया न जा सकेगा। १ कभी-कभी वनारस चला आया करता हूँ ! काम करते-करते जब बहुत थक जाता हूँ, या दिमाग में कोई उत्तान पड़ जाती है, या बोबी से बिगाड़ हो जाता है, तब बनारस ही एक जगह है-जहाँ आकर दिमाग ठण्डा हो जाता है। दशाश्वमेध से छतवाली एक बड़ी नाव पकड़ी और शरद की प्रभातकालीन धूप में गंगा की निर्मल लहरों पर तैरती हुई किश्ती की छत पर नंगे बदन एक चटाई पर औंधे पड़ कर वहाँ के सिद्धहस्त १