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अफ़ग़ानिस्तान में बौद्धकालीन चिन्ह


ये शरीरांश हिद्दा के स्तूपों में एक बहुमूल्य सुवर्ण सिंहासन पर अधिष्ठित हैं।

किसी समय जिस हिद्दा की इतनी महिमा थी और जिसके विशालत्व और वैभव की इतनी ख्याति थी वह अब इस समय एक छोटा सा गाँव मात्र रह गया है। अथवा यह कहना चाहिए कि उसका तो सर्वथा नाश हो चुका। उसकी जगह पर कुछ घरों का एक नया पुरवा या खेरा आबाद है। संघारामों और विहारों की इमारतें नष्ट भ्रष्ट होकर टीलो में परिणत हो गई हैं। वहाँ अब मिट्टी, बालू और कंकड़ों के सिवा और कुछ भी शेष नहीं। स्तूपों में जो मूर्तियाँ और जो कारीगरी थी यह भी नामशेष हो गई है। बहुत ढूँढ़ने से कहीं कही कारीगरी और रङ्ग-आमेज़ी के कुछ चिन्ह देखने को मिल जाते हैं।

जिस समय हु-एन-सङ्ग भारत आया था उस समय गान्धार में बौद्ध-धर्म्म का ह्रास हो रहा था। गान्धार की राजधानी पुरुषपुर अथात् वर्तमान पेशावर थी। पुरुषपुर, नगरहार और हिद्दा, ये तीनों नगर और उनके पास के प्रान्त कपिशा के साम्राज्य के अन्तर्गत थे। कपिशा का राज राजेश्वर क्षत्रिय था। वह बौद्ध-धर्म्म का अनुयायी था। हर साल वह १८ फुट ऊँची चाँदी की एक बुद्ध-मूर्ति तैयार करा कर उसका पूजन करता था। इस सम्बन्ध में एक बहुत बड़ा उत्सव होता था और