वंशज हो । एकजातित्व का पता सबसे अधिक भाषाओं से लगता है । द्राविड़-भाषायें संस्कृत से बिलकुल नहीं मिलती । अतएव यह बात निर्विवाद नही कि द्राविड़ भी भार्य-वंशोत्पन्न हैं और अपनी सभ्यता के लिए वे भी आर्यों की सभ्यता के ऋणी हैं।
इस प्रकार की शङ्काओं की उद्भावना किसी किसी के हृदय में हो ही रही थी कि पादरी (विशप) काण्डवेल ने, १८५६ ईसवी में, द्राविड़-भाषाओं का तुलनामूलक व्याकरण बना कर प्रकाशित किया । उसके प्रकाशन से वे पूर्वोक्त शङ्कायें कुछ और भी दृढ़ हो गई। पादरी साहब ने द्राविड़-भाषाभों के कुछ शब्दों का इतिहास लिख कर यह साबित किया कि जिनकी ये भाषायें है उनकी निज की सभ्यता बिलकुल अलग रही होगी। उसे उन्होंने आर्यों से नहीं ग्रहण किया। उधर दक्षिण में तो यह आविष्कार हुआ, इधर उत्तरी भारत में जब अशोक के अभिलेखों का पता चला और वे पढ़े गये तब यह मालूम हुआ कि अशोक-काल के पहले की कोई इमारतें और कोई चीज कहीं भी प्राप्य नहीं । अभिप्राय यह कि आज से कोई २२ या २३ सौ वर्ष पहले की आर्यसभ्यता के मूर्तिमान चिन्ह अप्राप्य हैं। इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि हो न हो, उस समय के पहले के आर्यवंशज भारतवासी कुछ अधिक