रहा। वे काफी सभ्य थे। पत्थर और लोहे के शस्त्रास्त्र
हवते थे, तरह तरह के आभूषण पहनते थे, ईंट और
पत्थर के बने हुए मकानों में रहते थे और आने मुर्दो को
उसी तरह गाड़ते थे जिस तरह मोहन-जोदरो, हरप्पा
और तिनवल्ली जिलेवालें गाड़ते थे।
इस तुलना और तर्कना का मतलब यह कि भारत के द्वाविड़ या द्रविड़ भूमध्य-सागर के टापुओं और उसके तटवर्ती देशों में रहनेवाले प्राचीन तरमिलाई पा ड्रमिल लोगों ही के वंशज हैं और द्रविड़ शब्द उसी पुराने ड्रमिल का अपभ्रंश है।
प्राचीन ड्रमिल क्रीट, साइप्रेस, सुमेर-राज्य, बावुल
इत्यादि से पूर्व की ओर फारिस और बलोचिस्तान होते
हुए भारत पहुँचे। वहाँ पञ्जाब और सिन्ध में पहले
बसे। फिर धीरे धीरे और और प्रान्तो से होते हुए
दक्षिणी भारत तक जा पहुँचे। एशिया माइनर से उन्हें
बहुत करके भारतीय आर्य्यों के पूर्वज इंडो-योरोपियनों
से निकाला या खदेड़ कर भारत में ला पटका और उत्तरी
भारत से वैदिक आर्य्यों ने उन्हे दक्षिण भारत को चले
जाने के लिए विवश किया। बचे बचाये कुछ लोग
बलोचिस्तान में रह गये जो अब तक द्रविड़ों की भाषा
से मिलती हुई भाषा बोलते हैं। एशिया-माइनर में तो
उन बेचारों के नंशजो का शायद समूल ही नाश हो