सिद्धान्तों को उनके परवर्ती विद्वान् आज तक सम्मान की
दृष्टि से देखते है। कोलबुक ने देहली के स्तम्भ पर
उत्कीर्ण विशालदेव की संस्कृत-प्रशस्ति का भी अनुवाद,
अंग्रेजी मे किया। १८०७ ईसवी में वे एशियाटिक
सोसायटी के सभापति हुए और उसी साल उन्होंने भार-
तीय ज्योतिष और खगोल-विद्या पर एक गहन ग्रन्थ
प्रकाशित किया। भारत से चले जाने पर उन्होंने इंगलैंड
में रायल एशियाटिक सोसायटी की स्थापना की और
संस्कृत-भाषा सीखने तथा भारतीय पुरातत्त्व का ज्ञान-
सम्पादन करने के विषय में लोगों को ऐसा चसका लगा
दिया कि दिन पर दिन नये नये संस्कृतज्ञ और पुरातत्त्वज्ञ
पैदा होने लगे। यदि कोलबुक के सद्दश प्रकाण्ड पण्डित
इस ओर इतना ध्यान न देते तो योरप में संस्कृत-भाषा
का इतना प्रचार शायद ही होता।
कोलबक साहब के साथ ही भारत में अन्य अँगरेज़
भी पुरातत्त्व-विषयक काम में लग गये थे। डाक्टर बुकनन
ने मैसूर-प्रान्त में, वहाँ के प्राचीन पदार्थों के विषय
में, बहुत कुछ ज्ञान-सम्पादन किया। इस बात से सन्तुष्ट
होकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने, १८०७ ईसवी में, उनको
एक विशिष्ट पद पर नियुक्त किया। उस पर रह कर उन्होंने
बङ्गाल, आसाम और बिहार के कितने ही जिलों में दौरे
करके वहाँ के पुरातत्त्व की खोज की और अनेक अज्ञात