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पुरातत्त्व-प्रसङ्ग


कमाऊँ और एरण के स्तम्भों के ऊपर के, साँची और अमरावती के स्तूपों के ऊपर के, और गिरनार-पर्वत के ऊपर के अनेक लेख पढ़ डाले और उनके अनुवाद भी, विवेचना-सहित, प्रकाशित कर दिये। सो इन अनेक विद्वानों के सतत परिश्रम का फल यह हुआ कि गुप्तका- लीन लिपि का सारा भेद खुल गया। वह हस्तामलकवत् होगई। उसमें उत्कीर्ण लेख अच्छी तरह पढ़ लिये जाने लगे। रहे कुटिल-लिपि में लिखे गये या उत्कीर्ण ग्रन्थ और शिलालेख आदि, सो यह लिपि वर्तमान देवनागरी लिपि से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। इससे उनके पढ़े जाने में विशेष कठिनता न हुई। वे तो सहज ही पढ़ लिये गये।

पुरातत्त्वज्ञ विद्वानों ने जव कुटिल-लिपि और गुप्त- लिपि को आयत्त कर लिया तब सन् ईसवी के चौथे शतक के उत्तरार्द्ध से लेकर दसवें शतक तक के प्राचीन भारत के इतिहास का बहुत कुछ अंश अंधेरे से उजेले में आने लगा। सैकड़ों शिलालेख, ताम्रपत्र और सिक्के पढ़े जाने और उन पर विवरणात्मक लेख प्रकाशित होने लगे। जिन अनेक प्राचीन राजों और राजवंशों के नाम तक न सुने गये थे उनके ऐतिहासिक वृत्तान्त प्रकाशित होने लगें।

परन्तु भारत की सबसे पुरानी ब्राही लिपि को तब तक भी कोई न पढ़ सका था। इस लिपि में खुदे हुए