यन-धर्मसूत्र (१-१८-१४) और गौतमीय-सूत्र (१०-
३३) में पाया जाता है।"
स्मृतियों में भी सामुद्रिक व्यापार के हवाले हैं।
मनुस्मृति में एक जगह (३-१५८) लिखा है कि वह
ब्राह्मण जिसने समुद्र-यात्रा की हो श्राद्ध में बुलाये जाने का
पात्र नहीं। एक श्लोक* में लिखा है कि जो लोग समुद्रयान में कुशल और देशकालार्थदशी हैं वे जहाज़ बनाने के
लिए दिये हुए रुपये का जो सूद निश्चित करेंगे वही
प्रामाणिक माना जायगा। एक और श्लोक में नदी और
समुद्र में चलने वाले जलयानों के किराये का जिक्र है।
एक और जगह लिखा है कि समुद्र में जहाज़ चलानेवालों
के दोष से यात्रियों के माल की जो हानि होगी उसके
जिम्मेदार जहाज़ चलानेवाले ही होगे। परन्तु जो हानि
- समुद्रयानकुशला देशकालार्थदर्शिनः।
स्थापयन्ति तु या वृद्धिं सा तत्राधिगमं प्रति॥
दीर्घाध्वनि यथादेशं यथाकालं तरी भवेत्।
नदीतीरेषु तद्विद्यात् समुद्रे नास्ति लक्षणम्॥
यन्नावि किञ्चिद्दाशाना विशीर्य्यंतापराधतः।
तद्दाशैरेव दातव्यं समागम्य स्वतेऽशतः॥
एष नौयायिनामुक्तो व्यवहारस्य निर्णयः।
दाशापराधतस्तोये दैविके नास्ति निग्रहः॥