वेद, रामायण, महाभारत, सूत्र-ग्रंथ, पुराण आदि
के सिवा संस्कृत के गद्य-पद्य-काव्यों तथा अन्य ग्रन्थों
में भी इस बात के प्रमाण मौजूद हैं कि प्राचीन आर्य्य
व्यापार, धर्म-प्रचार या जल-युद्ध आदि के लिए समुद्रयात्रा करते थे। महाकवि कालिदास के रघुवंश में
एक जगह* (४-३६) लिखा है कि महाराज रघु ने
एक बड़े ही विकट जल-युद्ध में वङ्ग-नरेश को परास्त
किया था और गङ्गा के बीचोंबीच अपना जयस्तम्भ गाड़ा
था। इसी ग्रंथ के एक अन्य स्थान में लिखा है कि
महाराज रघु ने फा़रिस पर आक्रमण किया था, यद्यपि
यह चढ़ाई स्थल ही की राह हुई थी। कविवर श्रीहर्ष
की प्रसिद्ध नाटिका रत्नावली में सिंहलेश्वर विक्रमबाहु
की एक कन्या का उल्लेख है, जो जहाज़ टूट जाने से
बीच समुद्र में डूब गई थी और जिसे कौशाम्बी के कुछ
- वङ्गानुत्खाय तरसा नेता नौसाधनोधतान्।
निचखान जयस्तम्भ गङ्गास्रोतोऽन्तरेषु च॥
पारसीकान् ततो जेतुं प्रतस्थे स्थलवर्त्मना।
अन्यथा क सिद्धादेशजनितप्रत्ययमप्रार्थितायाः सिहलेश्वरदुहितुः समुद्रेयानभनन्गनिमन्गयाः फलकमादानं क च कौशाम्बीयेन वणिजा सिहलेभ्यः प्रत्यागच्छता तदवस्थायाः सम्भावनम्।
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