पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४८५

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भूमिका यों तो मानव जीवन को अलंकृत करने के लिए विद्या बल धन प्रतिष्ठादि सभी उत्तम गुण आवश्यक हैं पर सब से अधिक वांछनीय एवं प्रयोजनीय पदार्थ सच्चरित्रता है। यदि और बात किसी कारण विशेष से न भी प्राप्त हो सके तो अकेले इसी गुण के द्वारा मनुष्य अपने तथा दूसरों के अनेकानेक उपकार कर सकता एवं सुख और सत्कीति के साथ जीवनयात्रा समाप्त कर के दूसरों के लिए सत्पथावलंबन के हेतु अपना चिरस्थायी अथच आदरणीय नाम छोड़ जाने को शक्तिमान हो सकता है। इसी से वेद में आशा है कि 'यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि', अर्थात् उपदेष्टागण शिष्यवर्ग से कहें कि हम लोगों के नितने उत्तम काम हैं उन्हीं को ग्रहण करना तुम्हें उचित है, अन्य कर्मों को नहीं और ऐसे ही उपदेशों की प्रथा के कारण पूर्वकाल में यहां लक्षावधि महात्मा ऐसे हो गए हैं जिन की सुयशकथा माज भी देश- देशांतरस्य सहृदयसमूह के कानों और प्राणों को आनंदित करती रहती हैं, पर बड़े खेद और आक्षेप का विषय है कि इन दिनों भारत में ऐसे लोग बहुत ही थोड़े देखने सुनने में आते हैं जिन के चरित्रों पर विचारवानों को सचमुच की श्रद्धा उत्पन्न हो सके । साधारण लोगों का तो कहना ही क्या है, जिन लोगों ने वर्षों विद्याध्ययन कर के बड़ी २ पदचियां प्राप्त की हैं उनके भी चाल चलन अधिकतर ऐसे नहीं हैं कि दूसरों के लिए उदाहरण बनाने के योग्य हों। इसके पद्यपि कई कारण हैं पर उन में से एक बड़ा कारण यह भी है कि उन्हें पढ़ने लिखने के समय वह बातें नहीं सिखलाई बाती जिन से उन के हृदय में यह संस्कार दृढ़स्पायो हो पाय कि ईश्वर ने मनुष्य को केवल कमाने खाने की चिता में फंसे रहने के लिए नहीं बनाया । बुद्धिमानों ने जो इसे सृष्टि का शिरोमणि 'अथर फुल मखलूकात' कहा है सो इस माशय से नहीं कि या तो आहार निद्रादि ही में जन्म बिता दे अथवा कुछ प्रभाव दिखावे भी तो 'विद्या विवादाय धनम्मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय' का उदाहरण बन के नहीं। यदि हमने यह जाना कि अपने तथा दूसरों के लिए हमें किस २ रीति से क्या २ कर्तव्य है तो हमारा दूसरे जीवों से उत्तम बनना वृया है। बस यही सिखलाने के उद्देश्य से यह पुस्तक लिखी गई है। यदि इसमें लिखी हुई बातें हमारे देश के नवयुवकों के हृदय में स्थान प्राप्त कर सकें तो हम अपना परिश्रम सफल समझेंगे भोर ईश्वर की दया से उन का भी जन्म सफल होगा । किमधिकम् । प्रतापनारायण मिश्र