पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/१५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(१४०)


हाथ, पाँव, मुख, नेत्रादि कुछ भी नहीं है उसे प्रतिमा कौन कह सकता है ? पर यदि कोई मोटी बुद्धि वाला कहे कि जो कोई अबयब ही नहीं तो फिर यही क्यों नहीं कहते कि कुछ नहीं है । हम उत्तर दे सकते हैं कि आंखें हों तो धर्म से कह सकते हो कि कुछ नहीं है ? तात्पर्य यह कि कुछ है, और कुछ नहीं है दोनों बातें ईश्वर के विषय में न कही जा सकें, न नहीं कहीं जा सके, और हाँ कहना भी ठीक है । एवं नहीं कहना भी ठीक है। इसी भांति शिवलिंग भी समझ लीजिये। वह निरवयव है, पर मूर्ति है । वास्तव में यह विषय ऐसा है कि मन, बुद्धि और बाणी से जितना सोचा समझा और कहा जाय उतना ही बढ़ता जायगा । और हम जन्म भर बका करेंगे, पर आपको यही जान पड़ेगा कि अभी श्री गणेशायनमः हुई है !!!

इसी से महात्मा लोग कह गये हैं कि ईश्वर को वाद में न ढूंढ़ो पर विश्वास में । इस लिये हम भी योग्य समझते हैं कि सावयव (हाथ पांव इत्यादि वाली) मूर्तियों के वर्णन की और झुकें जानना चाहिये कि जो जैसा होता है उसकी कल्पना भी वैसी ही होती है। यह संसार का जातीय धर्म है कि जो वस्तु हमारे आस पास हैं उन्हीं पर हमारी बुद्धि दौड़ती है। फारस, अरब और इंग्लिश देश के कवि जब संसार की अनि- त्यता वर्णन करेंगे तो क़बरिस्तान का नक़शा खींचेंगे, क्योंकि उनके यहाँ स्मशान होते ही नहीं हैं। वे यह न कहें तो क्या कहें कि बड़े बड़े बादशाह खाक में दबे हुए सोते हैं। यदि क़बर का