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दिखाई दे, पर वास्तव में धन और धर्म ही नहीं, बरंच देशीय रहन-सहन के विरुद्ध होने से स्वास्थ्य को भी ठीक नहीं
रखता, जन्म-रोगीपने की कोई न कोई डिग्री अवश्य प्राप्त
करा देता है !
यदि सौ अँटिलमैन इकट्ठे हों तो कदाचित् ऐसे दस भी न निकलेंगे जो सचमुच किसी राजरोग की कुछ न कुछ शिका- यत न रखते हों। इस दशा में हम कह सकते हैं कि आप-रूप का शरीर तो स्वतंत्र नहीं है, डाक्टर साहब के हाथ का खिलौना है। यदि भूख से अधिक डबल रोटी का चौथाई भाग भी खा लें वा ब्रांडी-देवी का चरणोदक आधा आउंस भी पी लें तो मरना जीना ईश्वर के आधीन है, पर कुछ दिन वा घंटों के लिए जमपुरी के फाटक तक अवश्य हो आवैंगे, और वहां कुछ भेंट चढ़ाये और 'हा हा, हू हू' का गीत गाए बिना न लौटेंगे। फिर कौन कह सकता है कि मिस्टर विदेशदास अपने शरीर से स्वतंत्र हैं ?
और सुनिए, अब वह दिन तो रहे ही नहीं कि देश का
धन देश ही में रहता हो, और प्रत्येक व्यवसायी को निश्चय हो
कि जिस वर्ष धंधा चल गया उसी वर्ष, वा जिस दिन स्वामी
प्रसन्न हो गया उसी दिन, सब दुःख-दारिद्र दूर हो जायगे । अब
तो वह समय लगा है कि तीन खाओ तेरह की भूख सभी को
बनी रहती है। रोजगार-व्यवहार के द्वारा साधारण रीति से
निर्वाह होता रहे, यही बहुत है । विशेष कार्यों में व्यय करने के