पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/२१

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"धार्मिक सिद्धांतों के विरोधी हैं। वे यह नहीं पसंद करते कि'किसी धार्मिक संस्था के द्वारा समस्त समाज को एक ही प्रकार के धार्मिक सिद्धांत ग्रहण करने पर बाधित किया जाय। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मानसिक प्रवृत्ति के तद्रूप अपना धर्म ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति की भावनायें अपने अपने सांसारिक अनुभवों के हिसाब से बिलकुल अलग होती हैं और जिन प्रवृत्तियों से उसका जीवन प्रभावित हो वही उसका धर्म है।

प्रतापनारायण जी के मनोरंजक शब्दों में ‘यदि ईश्वर एक ही लाठी से सबको हाँके तो वह ( ईश्वर कैसा ? )’। इन उद्धरणों से प्रकट होता है कि प्रतापनारायण जी व्यक्तिगत विचार-स्वातंत्र्य के कितने बेढब पक्षपाती थे। कहीं कहीं मतों को फटकारते हुए वे इतने जोश में आ गये हैं कि नास्तिकता का समर्थन करने लगे हैं। 'नास्तिक' पर एक लेख भी उन्होंने लिखा है।

भिन्न भिन्न मतावलंबियों में अपने मुँह मियाँ मिट्ट बनने की तथा दूसरों को हेय समझने की जो आदत होती है उस पर मिश्र जी बड़ी मजेदार टीका करते हैं और मतांतर- मात्र को अनावश्यक सिद्ध करते हैं:-

"जब जिसके लिये जो बात ईश्वर योग्य समझता है तब तिसको तौन ही बदला देता है। उससे बढ़ के बुद्धिमान कोई नहीं है। वह अपनी प्रजा का हिताहित आप जानता है। बेद