(२१२)
तुमहूं पुरुष पुरुष बोढू सुनि वाही नाते तृप्यन्ताम ।।
(१६)
पांच पीर की पांच चुटैया हमरे सिर पर लसैं ललाम ।
तिन कहं गहे रहैं निशि वासर लोभ मोह मद मतसर काम ।।
अद्भत पंच शिखा हैं हमहूं करन हेत पुरिखन बदनाम ।
अपनों स्वांग समुझि कै हम कहं पंचशिखा मुनि तृप्यन्ताम ।।
(१७)
जन्म दान लालन पालन लहि हम रोवत बिन दाम गुलाम ।
पै हमरो विवाह हो तुम हित अनरथ मूल कलह को धाम ॥
बसि अब बात बात पर खीझौ लरौ मरौ शिर धुनौ मुदाम ।
बचन वन संघारि वहूं संग जननि देवि भव तृप्यन्ताम ।।
(१८)
विद्या बिना अभ्यसित तुम कह निज कुल रीति नीति गृह काम ।
हम पढ़ि मरें तहूं बसि जानें उदर भरन बनि विश्व गुलाम ॥
मरेहु पूजिबे जोग अहौ तुम हम जिय तहु निन्दित सब ठाम ।
फिर किन गुनन कहैं केहि मुख सों दादी देवी तृप्यन्ताम ।।
(१९)
जानै बिन छल छंद जगत के तुम सुख जीवन लह्यौ मुदाम ।
हम हैं कोटि कपट पटु तौ हूँ दुर्गति में दिन भरै तमाम ।।
मरेहु खाहु तुम खीर खांड हम जियहिं क्षुधा कृश निपट निकाम ।
कौन भांति कहि सकै अहे प्यारी परदादी तृप्यन्ताम ॥
पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/२२३
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