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"स्वामी दयानंद तथा उनके सहकारियों ने (प्रतिमा-पूजन आदि के विषय में) जो उपदेश करना स्वीकार किया था (उसके लिये) हम उन्हें कोई दोष न देंगे, क्योंकि उनका मुख्य प्रयोजन भारत-संतान को घोर निद्रा से जगाना था। जिसकी युक्ति उन्होंने यही समझी थी कि कुछ कष्ट देने वाली तथा कुछ झुँझलाहट चढ़ाने वाली बातें कहके चौकन्ना कर देना चाहिये।"
ऐसी व्यापक दृष्टि उस 'रिंद' (मस्त) के लिए बिलकुल स्वाभाविक थी जो धर्म को 'मकड़ी का जाला' कहता है और जो ईश्वर-प्रार्थना करते समय यह मंत्र जपता था:--
'गमय दूरे शुष्क ज्ञानं। कुरुत प्रेम-प्रमाद-दानम्।' संसार के बड़े बड़े संतों तथा भक्तों ने मस्ती में रँगे हुए जिस तल्लीनता अथवा आनंदातिरेक का अनुभव करने के लिए शुष्क तत्त्वज्ञान का तिरस्कार किया है, ठीक उसी रिंदी का उपदेश प्रतापनारायण ने जगह जगह अपने लेखों में दिया है।
'दिल और दिमाग' ये ही समस्त सांसारिक ज्ञान को प्राप्त करने के दो उपकरण हैं। किसी को दिमाग़ की विवेचनाशक्ति ही पर अधिक भरोसा रहता है, जैसे तत्त्वज्ञानी लोग। इसके प्रतिकूल जो स्वभावतः मस्त तबीयत के होते हैं उन्हें कोरी दार्शनिक क्रीड़ा में मजा नहीं आता। वे अपनी सहृदयता की मात्रा बढ़ाते हुए उसी के द्वारा सांसारिक जीवन को आनंदमय बनाने में निरंतर लीन रहते हैं। ऐसे ही आनंदी जीवों के हाथ से प्रत्येक युग में सर्वोत्कृष्ट साहित्य तथा कला का जन्म होता