पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/११०

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रसाल-मजरी ऋतुनायक के कृपा दृष्टि ते यह अति लोनी । धारयो नवल "रमाल मञ्जरी" सुधर सलोनी ॥ कछुर मधुर मारन्द अवहिं यामे भीन्यो है । अब रो कोउ मधुकर मरन्द नाहि लीह्नयो है ।। अहो विमल मलयानिल । नेक धीर धरि आवो । कावेरी के रम्य तीर सो देगि न धागो । वरचम कुलवामिनि अञ्चल का नाहिं उडावो । नव मुकुलित मञ्जरी अहै इत धीरे आवो ॥ अरे नेक हटि टु डार पे ते मुन कोकिल ! मुनि तर पञ्चम राग जात मजरी अहै हिल ।। तव नैनन को लाली यह तो महि ना सवि है। नेक मधुर म्बर बालु पास रहि कैसे यरि है ।। वयो इतनी इतगत चले आवत हो इतनो। नेयहु रखन विचार नही हो अपने हितको॥ पुन मुमुद वन माहि कोजिये तो ग पेठी। मलयानिर । जो में चिवमै मजरी नवेरी॥