पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१३३

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विसर्जन तारवागन क्या गगन म हँसत मन्दहि मन्द । क्या मलिन कर कान्ति ह्र के धावते ही चन्द ॥ रे निलज्ज न लाज तोहिं विचारि के यह आज । जोन दशन म तिहारे मिल्यो है सुखसाज ॥ सौ सबै ही मलय-मारत-सग दोन उडाय । फूल है अवशेप सौरभ-हीन कोमल काय ॥ क्यो कमलिनि कुञ्ज पुञ्ज पराग सरवर माहिं । घोरि के सुरभित करो जल कौन हित चित चाहि? सो न वेगवती नदी अब हाय, हिय यह मान । जो करेगी बात वीचिन के तुम्हारे कान ।। हाय, मृगतृष्णा भ्रमावत रहयो जो चहुँ लेरि। सो चमक हूँ वालुकावण धारिहै नहिं हेरि ।। सबहिं विस्मृति वियो हे प्रिय | चन्द्रिका-निधि माहि । कोक्लेि। बहु कोन कहिके चेतिही अब नाहिं ॥ यदपि है भूलन चहति चित चैति के गुन गाथ । तदपि भूलहिं चेतिहै चित चेति पूरब साथ ॥ वा मधुर तम माहिं जौन प्रकाश ते तुम चन्द । चित्तरञ्जन करत ताको काज नहिं अब मन्द । जाहु विस्मति अस्त शैल निवास को चित चाहि । शान्ति की नव अरण क्रान्ति प्रकाशिहै हिय माहि ।। प्रसाद वाङ्गमय ॥७०॥