जिससे लगे सुमन कानन मे कोमल किसलय प्रस्तुत थे उन पथिको को पखा झलते, थके हुए जो आते थे। सच्चरिन, मन्तुष्ट गृहस्थो की थी जन्मभूमि नगरी दया स्रोत-सी जिसे घेरकर बहती थी छोटी सरिता । गोचरभूमि रही विस्तृत नगरोपकण्ठ म हरी भरी दुग्धशालिनी गायो का जब झुण्ड दिखाई पडता या तब निरोगिता को प्रत्यक्ष विचरते लोग निरखते थे। कृपक समूह जहा सन्ध्या को ग्राम्य गीत सुख से गाते । वे सीमा के खेत शस्य से श्यामल हो लहराते थे। नगर-बीच मे पण्यवीथिका भरी दिखाई देती थी प्रय-विक्रय की धूमधाम से जनरव से उद्घोपित थी जन-स्रोत-सा राजमार्ग चलता ही रहता था दिन-रात सब प्रफुल्ल थे, अपने-अपने काय्य परिश्रम से करते, हा मित्रो के मिल जाने पर हंसकर मन से मिलते भी खेल, तमाशे, पद और त्योहार सभी ये होते थे और कहाँ तक पहूँ, सदा आनन्द-स्रोत उमडा रहता इसीलिए---'आनन्द नगर' था नाम पडा उस नगरी का। 'तटिनी के तट पर सुन्दर था एक मनोहर घर अपना स्वग धरा का, सुदर, जिसमे साथ पिता के रहता मैं । पास उसी के और एक थे गृहस्थ रहते, सज्जन थे प्रेम पुत्तली पन्या से खेला करते बूढे होकर । मेरे पिता रहे उनके परिचित मित्रों मे कौन पहे? रहा बडा सद्भाव सदा दोनो मे अच्छी बनती थी। हम दोनों भी नित्य परस्पर मिलकर खेला करते थे नदी-कूल मे, कुसुम-कुज मे, रुपा और सन्ध्या में भी सिली चादनी में खिलते थे एक डाल मे युगल कुसुम । चकई-वक्वे से हम दोनो, रात व्यतीत अलग करते कीडा कर जब थक जाते तर अपने घर म ले जाते दोनो ही के जनक । सदा या ही निज मन बहलाते थे।' कुछ अज्ञात कारणा से तव पुलक्ति हो तापसी उठी, कहा-"पथिक क्या नाम तुम्हारा, यह न वहा तुमने अब तक ।" प्रेम-पथिक ॥११॥
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