पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२१५

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सम्हार लो गुण जो तुम्हारा पार करने का उसे विस्मृत न हो यह नाव मछली को खिलाने की प्रभो बसो न हो हे गुणाधार, तुम्ही बने हो कणधार विचार लो है दूसरा अब कौन, जैसे वने नाथ ये मानसिक विप्लव प्रभो, जो हो रहे दित रात हैं कुविचार क्रूरो के कठिन कैसे कुटिल आघात हैं हे नाथ, मेरे सारथी बन जाव मानस-युद्ध में फिर तो ठहरने से बचेंगे एक भी न विरुद्ध में प्रसाद वाङ्गमय ।।१५२॥ roma