देव दिनकर क्या प्रभा-पूरित उदय होने को है चक्र के जोडे कहो क्या मोदमय होने को हैं वृत्त आकृत कुकुमारुण वज-कानन मित्र है पूर्व मे प्रकटित हुआ यह चरित जिसका चिन है कल्पना कहती है, कन्दुक है महाशिशु-खेल का जिसका है खिलवाड इस संसार में सब मेल का हाँ, कहो, किस ओर खिंचते ही चले जाओगे तुम क्या कभी भी खेल तजकर पास भी आओगे तुम नेत्र को यो मीच करके भागना अच्छा नही देखकर हम खोज लेंगे, तुम रहो चाहे कही पर कहो तो छिपके तुम जाओगे क्यो किस ओर को है कहाँ वह भूमि जो रक्खे मेरे चितचोर को बनके दक्षिण-पौन तुम कलियो से भी हो खेलते अलि बने मकरन्द की मोठी झडी हो झेलते गा रहे श्यामा के स्वर में कुछ रसीले राग से तुम सजावट देखते हो प्रकृति की अनुराग से देके ऊपा-पट प्रकृति को हो बनाते सहचरी भाल के कुकुम-अरुण को दे दिया विदी खरी नित्य-नूतन रूप उसका हो बनाकर देखते वह तुम्हें है देखती, तुम युगल मिलकर खेलते प्रसाद वाङ्गमय ।।१५४॥
पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२१७
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