पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२१९

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विन्तु तुम्हे विधाम वहाँ है नाम को केवल मोहित हुए लोभ से काम को ग्रीष्मासान है विछा तुम्हारे हृदय म कुसुमाकर पर ध्यान नही इस समय मे अविरल आंसू-धार नेत्र से बह रहे वर्षा ऋतु का रूप नही तुम लख रहे मेष-वाहना पवन-माग विचरती सुन्दर थम-लव विन्दु धरा को वितरती तुम तो अविरत चले जा रहे हो रही तुम्हे सुघर ये दृश्य दिखाते हैं नहीं शरद-शर्वरी शिशिर प्रभजन-वेग मे चलना है अविराम तुम्ह उद्वेग मे भ्रम-कुहेलिका से दृग पथ भी भ्रान्त है है पग-पग पर ठोकर, पर नहिं शान्त है व्याकुल होकर, चलते हो क्या माग मे छाया क्या है नही कही इस माग म त्रस्त पथिक, देखो करणा विश्वेश की खडी दिलाती तुम्हे याद हृदयेश की शीतातप की भीति सता सक्तो नही दुख तो उसका पता न पा सकता कही भ्रान्त शान्ति पथिको का जीवन मूल है इसका ध्यान मिटा देना सब भूल है कुसुमित मधुमय जहा सुखद अलिपुञ्ज है शान्ति-हेतु वह देखो 'करुणा-धुञ्ज' है . प्रसाद वागमय ॥१५६ ॥