पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२२३

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हृदय-वेदना सुनो प्राण प्रिय, हृदय वेदना विक्ल हुई क्या कहती है तव दु सह यह विरह रात दिन जैसे सुख से सहती है में तो रहता मस्त रात दिन पाकर यही मधुर पीडा वह होरर स्वच्छन्द तुम्हारे माथ पिया करती क्रीडा हृदय वेदना मधुर मूर्ति तव सदा नवीन वनाती है तुम्हे न पाकर भी छाया में अपना दिवस विताती है कभी ममझकर रुष्ट तुम्ह वह करके विनय मनाती है तिरछी चितवन भी पा करके तुरत तुष्ट हो जाती है जब तुम सदय नवल नीरद से मन-पट पर छा जाते हो पोटास्थल पर शीतल बनकर तब भासू वरसाते हो मूत्ति तुम्हारी सदय और निदय दोनो ही भाती है किसी भाति भी पा जाने पर तुमको यह सुख पाती है कभी कभी हो ध्यानवचिता घडी विकल हो जाती है क्रोधित होकर फिर यह हमको प्रियतम | बहुत सताती है इसे तुम्हारा एक सहारा, किया क्रो इससे क्रीडा में तो तुमको भूल गया हूँ पाकर प्रेममयी पीडा प्रसाद वाङ्गमय ॥१६२॥