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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२२५

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जलद-आहवान शीघ्र आ जाओ जलद । स्वागत तुम्हारा हम करें ग्रीष्म से सन्तप्त भन के ताप को कुछ कम करें है धरित्री के उरस्थल मे जलन तेरे बिना शून्य था आकाश तेरे ही जलद | घेरे विना मानदण्ड समान जो ससार को है मापता लूह की पचाग्नि जो दिन रात हो है तापता जीव जिनके आश्रमो की मी गुहा मे मोद मे वास करते, खेलते हैं बालवृन्द विनोद से पनहीना वरलरी जैसी जटा बिखरी हुई उत्तरीय समाा जिन पर धूप है निखरी हुई शैल वे साधक सदा जीवन-सुधा को चाहते ध्यान म काली घटा के नित्य ही अवगाहते धूलिधूसर है धरा मलिना तुम्हारे ही लिये है फटी दूवादलो की श्याम साडी देखिये जल रही छाती, तुम्हारा प्रेम-वारि मिला नहीं इसलिये उसका मनोगत भाव-फूल खिला नही नेत्र-निझर सुख-सलिल से भरें, दुख सारे भगें शोघ्र आ जाओ जलद । आनन्द के अकुर उग प्रसाद वाङ्गमय ॥ १६४॥