पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३५

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हुकार उठा" पितु वस्तुत 'वह अतिचारी' उसे निकृष्टतम प्रजा वनाना चाहता है जबकि-'दुवल नारो परिनाण पथ नाप उठो।' मागन के 'प्राचीन समाज' की टिप्पणी म माश्म मनुष्य के अन्तर्जात वाक्छल की बात कहते है एगिरस नर और नारी के सम्बध को प्रथम वग-उत्पीडन को सज्ञा दते है किन्तु पदाथ सीमित दृष्टि के कारण पदाथ स्तर के आगे ममा गान का बढना सम्भव न हो मका। कामायनी इस छल और उत्पीडन का समाधान समन्वय और सामरस्य म देती है। संघप-सग तर समस्या-पव है उसके अनन्तर समाधान पव आता है, भ्रमवश जिसे कभी-कभी पलायन के अथ मे ग्रहण करने की अनोध चेष्टा की जाती है फिर ता उन स्थला और स्थितिया की असमथ मोमासा म विपय और भी दुरारूढ बन जाता है। यह मत नि कामायनी का समापन सघप-सग से ही हो जाना उचित था, परवर्ती सग तो क्षेपक्वत हैं, वाव्य की मूल प्रयोजनीयता स सवादित नही वैसे मत का मन्तव्य यही हो सकता है कि ममूप मनु या मोह मुग्ध मन वैसी अगति की ही दशा म पड़ा रहे मानवता के सम्मुख शस्न और अग्नि' की वर्षा का यथाथ, आदश और भरत वाक्य बने फिर समाधान क्या और कैसे? सधप की पदाथ भृमि उत्तीण हान पर ही मन का सहज गति चार सम्भव है फिर वैसी भूमिका अनावश्यक क्षेपक क्या मानी जाय जिसमे मन के आतिवाहिक तरगा की उठा न और अभियान ह ऐसा न होना ही वस्तुत पलायन होता । नर और नारी की आवयवीय विषमताआ के परिणाम मानवी सस्कृति के आगामी परिच्छेदो म और स्पष्ट होते हैं। अपने 'अवयव की दृढ़ मास पशिया' ले आखेट करने को नर स्वतन्त्र रहता है और 'अवयव की सुदर कोमलता लेकर मै सबसे हारी हूँ कहने वाली नारी, नर के मृगया से विरत हो लौटने की प्रत्याशा म लौ लगाये और अपने स्वतत्रता के सूखे काठो का फूंक फूंक कर उसी लौ जैसी ही एक अनवरत ज्वाला जलाये देहली के भीतर से निनिमेप पथ' दमने की दशा म आ जाती है। और, आहार पराक्रमी, आखेट विक्रम नर का शामन सम्यता के विवरण के साथ साथ दृढतर होता जाता है, फिर ता उसके मिथ्या को य मानने का अभ्यास नारी का एक नैसर्गिक गुण मान लिया सभ्यता के उपादानो को प्ररणा, समाज की निवसनता और से विश्व वरद्ध पहली घोषणा नारी की ओर से होती है उसी हाट की अनिवायतायें उस इस हेतु विवश भी करती है । आदिम प्रसाद वाङ्गमय ॥४२॥ पदा