. समीप तो उसकी वतमान सस्कृति का क्रमपूण इतिहास ही होता है, परन्तु उसके इतिहास की सीमा जहा से प्रारम्भ होती है ठीक उसी के पहले सामूहिक चेतना के दृढ और गहरे रगो की रेखायो से बीती हुई और भी पहले की बातो का उरलेप स्मृति पट पर अमिट रहता है, परन्तु कुछ अतिरजित सा-आज हम सत्य का अथ घटना कर लेते है । तब भी उसके तिथि क्रम मान से सन्तुष्ट न हो पर मोवैज्ञानिक अन्वे पण के द्वारा इतिहास को घटना के भीतर कुछ देखना चाहते है। उसके मूल मे क्या रहस्य है ? जात्मा को अनुभूति हा, उसी भाव के रूप ग्रहण की चेष्टा सत्य या घटना बन कर प्रत्यक्ष होती है।' परन्तु, वैमी गाथाओ और भावपूर्ण इतिवृत्तो का महत्त्व कम नही उन्ही के सहारे वैसी गवेपणा चलती और फल प्रमाणीकृत होते है । जातिवाची, विश्व के प्राय सभी मानव समूहो की अनुश्रुतिया प्रलय को गाथा अपने-अपने ढग से संजोये ह अवेस्ता की गाथाये हिम प्रलय (उसके पिघल कर प्लावित होने मे) तो शतपथ समुद्रीय जलप्लावन की बात कहते हैं । नोक, अक्कादी, बेबिलोन आदि की अनुानियो मे मिलती जुलती गाथायें है दूरवर्ती टापुओ की पुरानी-आपराकमातियो म भी ऐसी घटना का उरलेप विभिन्न प्रकार से मिलता है।चिता विस्तार भय से यहा चर्चित नही किन्तु ईजिप्ट की परम्परा मे प्रलय की गाथा नही मिलती (अभी तक)। स्वैण्डिनेविया के नोस वाङ्मय का वूलुस्पा गीत जिसकी रचना बडा द्वारा हुई एक प्रलय-सन्ध्या का उल्लेख करती है, जिसमे उच्छापल देवयुग समाप्त होता है एवविध, ऐसी घटना के उल्लेख केवल आय-वाङ्गमय तक ही सीमित नहीं । कामायनी मे देव-सृष्टि के लयात्तर उसकी दुबलताओ-दोषो से सवथा रहित एक नवीन मानव-समाज की परिकल्पना है जिसके आदि- प्रजापति उसी सस्कृति के अवशेष मनु ह जिनके सम्मुख "देव अस फलताओ का ध्वस प्रचु उपकरण जुटा कर" पड़ा है। उसी मानवी सस्कृति के योग-क्षेम म उठते गिरते 'श्रद्धायुत वस मनु त मय थे। देव-मष्टि-गत कतिपय सस्कार मूर्तिया और अवशिष्ट बीजो के तन्तु से कामायनी अपना पट बुनती है । तरण-तपस्वी से प्रतीत हाते मनु हैं, जो स्वीकार करते हैं "मेरा सन कुछ को मोह के उपादान से गठिन हुआ फिर उन्ही जैसे लम्बे दो-चार 'देवदार' खडे है। यहा देवदार 'हिमधवल वृक्षो' के रूप म कथित हो उन अवशिष्ट बीजा की ओर भी इगित करता है । वहा, प्रसाद वाङ्गमय ॥४६॥
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