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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४४१

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"एक दिन, सध्या थी, मलिन उदास मेरे हृदय पटल सा लाल पीला होता था दिगन्त निज क्षाभ से । यमुना प्रशान्त मन्द मन्द निज धारा मे, करुण विपाद मयी बहती थी धरा के तरल अवसाद सी। वैठी हुई कालिमा की चित्र-पटी देखती सहसा में चौक उठी द्रुत पद शब्द से सामने था शैशव से अनुचर मानिक युवक अब खिच गया सहसा पश्चिम-जलधि-फूल का वह सुरम्य चित्र मेरी इन दुखिया अखडियो के सामने । जिसको बना चुका था मेरा वह वालपन अद्भुत कुतूहल औ' हँसी की कहानी से । मैने कहा $$ 21 "केसे तू अभागा यहा पहुँचा है मग्ने ?" "मरने तो नही यहा जीवन की आशा मे आ गया हूँ रानी -भला कैसे मैं न आता यहा कह, वह चुप था। छुरे एक हाथ में दूसरे से दोनो हाथ पकडे हुए वही प्रस्तुत थी तातारी दासिया । सहसा सुलतान भी लिखाई पडे , और में थी मूक गरिमा के इन्द्रजाल मे । "मृत्यु दड ।" वन निर्घोष सा सुनाई पडा भीषणतम- मरता हैं मानिक। प्रसाद वाङ्गमय ।। ३९०॥