पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४४३

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एक क्षण, भावना के उस परिवतन का क्तिना अजित था? जीवित हैं गुजरेश ! क्णदेव । भेजा सदेश मुझे "शीघ्र अन्त कर दो जीवन की लीला।" लालसा की अद्ध कृति सी! उस प्रत्यावतन में प्राण जो न दे मके, हां जीवित स्वय हैं। जिये फिर क्यो न मन अपनी हो आशा मे? बन्दिनी हुई मै अबला थी, प्राणो का लोभ उन्हे फिर क्यो न वचा मका? प्रेम कहाँ मेरा था? और मुझमे भी कैसे कहूँ शुद्ध प्रेम था। मानिक कहता है, आह, मुझे मर जाने को। स्प ने बनाया रानी मुझे गुजरात की, वही रूप आज मुझे प्रेरित था करता भारतेश्वरी का पद लेने को। लोभ मेरा मूर्तिमान प्रतिशोध था बना और मोचतो थी मैं, आज हूँ विजयिनी चिर पराजित सुलतान पद तल मे । कृष्णागुरुवर्तिका जल चुकी स्वण पान के ही अभिमान म एक धूम रेग्वा मान शेप थी, उस निस्पन्द रग मन्दिर के व्याम म क्षीणगध निरवलम्ब । किन्तु मै समझती थी, यही मेरा जीवन है ! यह उपहार है, यह शृङ्गार है । मेरी स्प माधुरी का। मणि नूपुरो को बीन बजो, झनकार से गूंज उठी रंगशाला इस सौदय की विश्व था मनाता महोत्सव अभिमान का प्रसाद वाङ्गमय ।। ३९२॥