पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४४८

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निवेदन कामायनी के आदि सस्करण की प्रतिच्छवि रूप मे प्रस्तुत इस तथावत पुनमुद्रण को ग्रहण करने की सहृदय कृपा करें इसके स्वरूप का अभिप्राय बताने वाली आगामी पत्तियो को आरात्रिक रूप मानते वाग्देवता प्रसादपूबक क्षमा नरें। पूज्य पिताजी द्वारा प्रयुक्त वतनी का यहाँ यथावत् व्यवहार है। यद्यपि उनके पचमाक्षरी-मन्धि के वे नियम यान्त्रिक सशय मे मुद्रणा धीन त्रुटियो की आशका से आचीण न हो सके जिन्हे आश्वस्त सुविधा की दशा में पारित होना है। मुझे स्मरण है, आदिमस्करण के समय भी यह प्रश्न उठा था और यन्त्र की विवशता के पारण इस नियम के अपवाद की उपेक्षा हुई । आदि सस्करण मे व्यवहृत कुछ टाइपो का इम पुनमुद्रण मे यथावत् व्यवहार शक्य नही आ क्योकि आज उनके कुछ दूसरे रूप ही प्रचलित है जैसे अ, झ, ल आदि । विराम और समास चिह्ना के अवस्थान पर कही कही मतभेद हैं और मतभेद के अनुपात मे सहज अर्थान्तर और अग्विति परक भेद स्वाभाविक है। किन्नु, कामायनी मे वैसे चिह्नो का अवस्थान स्यात् सहज और निर्विवाद न रहेगा उसे अर्थानुकूलन का एक समवायी आरोपण कहना भी अनुचित न होगा। युक्तायुक्त प्रसगविश्लपणोपरि वैसे चिह्नो के न्यास पूवक सामान्य पठन-पाठन और मध्ययन-अध्यापन के लिये अन्य सस्करण योजित क्येि जा सकते है जा विद्वानो के मन्तव्य सग्रहतया आपयन्त अनुत्तर निणय पर निभर है किन्तु स्वाध्याय के अथ भी वे कहा तर उपादेय होगे यह अभी नहीं कहा जा सकता। निवेदन ॥ ३९९॥