पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४५०

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को जन्म देती। प्राय वीस वर्षों का समय काव्य-स्वरूप के उपादान- सचयन मे लगा । "इन्दु" में प्रकाशित निवध 'भवित" (किरण ८ फारगुन सवत् १९६६ ईसवीय १९०९) के पूर्व "श्रद्धाभक्त्तिज्ञानयोगादवेहि" की विवेचना अग्रसर हो चुकी थी-जहां कहा गया है-"मनुष्य जय आध्या त्मिक उन्नति करने लगता है तव उसके चित्त मे नाना भाव उत्पन होते हैं और उन्ही भावो के पर्यालोवचा म उसके हृदय म एम अपूव शक्ति उत्पन होती है उसे लोग चिन्ता कहते हैं । यहाँ कामायनी का उद्बोधन- पव दिवा उपोद्धात ही है--"चित्ताप्रवृतसिद्धार्था उपाद्धातप्रचक्षते" प्राय वीस वर्षों के अनवरत और व्यापक मनन चिन्ता द्वारा कामायनी के उपादान प्रस्तुत हुये और श्रीपचमी सवत् १९८४ ( ईसवीय १९२७ ) से कामायनी लिपि-विग्रह धारण करने लगी जहा, अकस्मात् हो चिन्ता से याव्यारभ नहीं हो गया उसके पूवरग मे कुछ यस्मात् कस्मात् भी है। अस्तु, विविध सरणियो और भूमिकाओ मे सचरण करते श्रुतिया नादि के जो सवाद मिले वे कामायनी की पाण्डुलिपि म अग्रस्थानीय हुये जिन्हे सन्दभ सकेत के रूप मे ही लिया जा सरता है, वहा वामायनी की कथा, उसके चरितो, और उन चरित्रो मे निहित सार्वतिर सहज स्फूर्ति प्रति- बिम्बित है । स्वाध्यायी के लिये इस सदभ-सक्त का महत्त्व कुछ अधिक होना चाहिये पाठक के लिये भल हो अत्प हो । सुतराम्, अग्रवर्ती पृष्ठो म उसका लिपि-पाठ और मुद्रण-पाठ परस्पर सम्मुख दे दिया गया है। आदिसस्करण के सशोधन-पत्र द्वारा इगित त्रुटियो का यथास्थल माजन कर लिया गया है वही-वही पाण्डुलिपि से भी सहायता लेनी पड़ी यथा पृष्ठ ४१९ की तेरहवी पक्ति म “हाहाकार" का पाण्डुलिपीय रूप रखा गया है | पृष्ठ ४२६ वी तेरहवी पक्ति पाण्डुलिपि मे "वाष्प बना उडता जाता या है, जब नि आदि सस्वरण म उडता के स्थान पर उजडा है । विन्तु, पाठ विवरता स वचने का भरसक यत्न किया गया है। एमे कतिपय स्थल पृष्ठात टिप्पणियो मे मकेतित है। तमेमन शिवसवत्पमस्तु हुताशनी वै० २०३२ रत्नशार प्रसाद निवेदन ॥४०१॥